बस्तर मित्र/कांकेर।
कांकेर जिले के सेमर गांव में तीन दिवसीय देव मेला का भव्य आयोजन हुआ। जिसमें हजारों आदिवासियों एवं कई गांव के देवी -देवता मेला में शामिल हुए। सेमर गांव कांकेर जिला के अंतागढ़ ब्लॉक के आमाबेड़ा से लगभग 8 से 10 किलोमीटर दूर है। बोडागांव से आगे जाने पर स्वागत गेट है। उसी साइड से लगभग 1 किलोमीटर या उससे थोड़ा कम दूरी पर लिंगो देव ठाना है। यह गोंड जनजाति का विशेष दार्शनिक स्थलों में से एक है और इन स्थल का अपना अलग महत्व है। सेमर गांव का नाम पढ़ने के पीछे भी एक तर्क काफी लोकप्रिय और चर्चित है। लिंगो देव के छः भाई लोग और लिंगो के साथ 7 तो सेमरगांव में सात सेमर का पेड़ एक कतार में है इसलिए इनका नाम सेमरगांव पड़ा, ऐसी मान्यता है। कई राज्यों से बड़ी संख्या में आदिवासी जुटते हैं, जिसमें बड़ी संख्या में महिलाएं होती हैं। प्रकृति को समर्पित इस देव जतरा में 18 वाद्य यंत्रों के ताल में ऐन्दना डाका ;पैर से पैर मिलाकर किया जाने वाला नृत्य, और गुरू लिंगो पेन का अद्भुत पेन कर्रसाड ;मृत्यु के संस्कार के बाद किया जाने वाला सामुहिक नृत्य आकर्षण का केन्द्र होता है। ।
जतरा के मौके पर जब लिंगो को उनके स्थान से उठाया जाता है तो कच्चे बांसों के झुंड को आपस में टकराया जाता है जिससे एक ख़ास प्रकार की ध्वनि निकलती है। इसे झाटी कहते हैं। मान्यता है कि देव को उठाने के लिए 5 लोगों का चयन देव खुद करते हैं। इसके लिए वे इनके शरीर में आते हैं। ऐसे लोगों में से एक व्यक्ति तीर.कमान, दूसरा तलवार, तीसरा गुड्डे ;मोर पंख से बना हुआ एक प्रतीक, चौथा छत्तर लेकर सामने.सामने चलते हैं। यह दृश्य बड़ा मनमोहक होता है। वाद्य यंत्रों की सुरीली धुन से जंगल खिल उठता है। पारी कुपार लिंगो की स्मृति में प्रसिद्ध देव जतरा (यात्रा) से शुरू होता है। यह तीन दिवसीय आयोजन छत्तीसगढ़ बस्तर संभाग के उत्तर बस्तर कांकेर जिले के सेमरगांव आमाबेड़ा में किया जाता है। इस आयोजन में कई राज्यों से बड़ी संख्या में आदिवासी भाग लेते है।
पहांदी पारी कुपार लिंगो कर्रसाड़ देव जतरा प्रत्येक तीन वर्ष के बाद आयोजित किया जाता लेकिन इस वर्ष 5 वर्षो बाद यह कार्यक्रम आयोजित हुआ है। हालांकि आदिवासी बुजर्ग बताते है 50 वर्ष पूर्व यह जतरा 12 साल में एक बार होता था । इसके पीछे मान्यता यह थी कि 12 साल बाद बांस के फूल खिलते थे, जो बारिश नहीं होने का प्रतीक था। लोग बरसात के लिए जतरा निकालते थे। बुजुर्ग यह भी मानते है कि जतरा की तिथि का निर्धारण स्थानीय देवताओं की अनुमति से चन्द्रमा को देखकर किया जाता है। इसलिए तैयारी एक साल पहले ही शुरू हो जाती है।