बस्तर मित्र/कांकेर।
आदिवासी समाज में नवाखाई पर्व की बहुत ज्यादा महत्ता है। इस पर्व पर किसी भी जगह नौकरी या व्यापार करने जाने वाला आदिवासी समाज का सदस्य अपने मूल गांव पहुंचता है तथा पुरे परिवार के साथ पारंपरिक रूप से इस पर्व को मनाते हैं। यही नहीं जिन परिवारों में हिस्सा बंटवारा हो जाता है वे परिवार भी नवाखाई पर्व पर एक जगह एकत्रित होते हैं तथा मिल जुलकर इस पर्व को मनाते हैं।
4 सितंबर को आदिवासी समुदाय ने नवाखाई पर्व हर्षोल्लास से मनाया गया। सुबह नवाखाई पर गांव के गायता शीतला मंदिर पहुंचे और शीतला माता की विधि विधान से पूजा कर नया चावल चढ़ाते गांव के खुशहाली की कामना की। दोपहर 12 बजे से लेकर दोपहर 3 बजे तक हर घर में कलश, दीपक जलाकर बूढ़ा देव के साथ ईष्ट देव व घर के अन्य देवी देवताओं की पूजा कर नारियल फूल चढ़ाया गया।
ईष्ट देव सहित अन्य देवी देवताओं को नया चावल कोरिया के पत्ता में अर्पित किया गया। पूजा में पूरा परिवार एक साथ शामिल हुआ। सबसे पहले परिवार के प्रमुख पूजा करते हैं फिर अन्य लोग पूजा करते हैं। महिलाएं परिवार के प्रत्येक सदस्य को तिलक लगाती है तथा आरती उतारती है। पूजा के बाद सभी को नया चावल से बने चिवड़ा का प्रसाद वितरण किया जाता है।
नवाखाई पर औषधीय गुणों वाले कोरिया पत्ता में किया जाता है भोजन
नवाखाई पर्व खेतों में लहलहाती धान की नई फसल में बालियों के आने की खुशी के इजहार के रूप में मनाते हैं। इस दिन अपने ईष्ट-देवों को नया चावल से बनी खीर बनाकर भोग के रूप में अर्पण करते हैं। धान की बालियों को चढ़ाते हैं। देवगुड़ी में स्थित देवी देवताओं की पूजा की जाती है। धान की नई फसल के अन्न से तैयार गोना भात तसमई या खीर को पहले ईष्टदेवों को चढ़ाते हैं फिर माईघर में बैठकर सपरिवार मिल जुलकर खाया जाता है।
नवाखाई उत्सव के दौरान नई फसल से बनी पकवान को एक औषधीय पौधा कोरिया के पत्ते से परोसकर खाने की परंपरा है। खिचड़ी या खीर को प्रसाद के रूप में ग्रहण करने के बाद जूठन पत्तल को जमीन में गाड़ दिया जाता है। माना जाता है वर्ष में एक बार इस औषधीय पत्ता से भोजन या अन्य पकवान ग्रहण करने पर कई शारीरिक व्याधियां खत्म हो जाती हैं।