
19वीं-20वीं सदी में कांकेर की होली में पीतल की पिचकारियां और प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल होता था। जैसे-जैसे समय बदला, प्लास्टिक की पिचकारियां और केमिकल वाले रंगों का दौर आया।
शहर और आसपास के इलाके के पुराने लोगों को आज भी 65 साल पहले की होली याद आती है। वो समय जब होली सिर्फ त्योहार नहीं, बल्कि ऐसी परंपरा थी, जो दोस्ती बढ़ाने, झगड़े और दुश्मनी को समाप्त करने के लिए होती थी। आज की होली की तरह ना केमिकल वाले रंग होते थे, ना मिलावटी मिठाइयां। वह होली थी आदर्श होली, जिसमें सभी लोग एक ही रंग में रंग जाते थे। कोई भी भेदभाव नहीं होता था।
कांकेर में होली की परंपरा एक हजार साल पुरानी है। जब कांकेर के कंडरा राजा गढ़िया पहाड़ पर किला बनाकर रहते थे। उनकी प्रजा भी वहीं उनके साथ रहती थी। राजा के समय जब पहली होली जलती थी, वह स्थान आज भी वही है। हर साल गढ़िया पहाड़ के नीचे होलिका दहन की अग्नि लेकर कांकेर के विभिन्न मोहल्लों में फैलाई जाती थी। यह रस्म अब भी निभाई जाती है। इसके बाद कांकेर का इतिहास राजा नरहर देव, कोमल देव और भानु प्रताप देव के शासन से भरा है।
19वीं-20वीं सदी में कांकेर की होली में पीतल की पिचकारियां और प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल होता था। जैसे-जैसे समय बदला, प्लास्टिक की पिचकारियां और केमिकल वाले रंगों का दौर आया। होली का आनंद पहले जैसा नहीं रह गया। सन् 1960 तक महाराजा भानु प्रताप देव ने कांकेर की होली का स्तर गिरने नहीं दिया। उनके समय तक होली में टेसू (पलाश) के रंग और देसी मिठाइयों का महत्व था। इस समय मिठाइयां भी असली देसी स्वाद वाली होती थीं। इन मिठाइयों का वितरण सभी पड़ोसियों और मित्रों में बिना भेदभाव के किया जाता था।
महाराजा भानु प्रताप देव दिनभर महल और मंदिरों में होली के कार्यक्रमों में शामिल होने के बाद शाम को राजापारा में अपने मित्र हबीब सेठ के यहां आते। हबीब सेठ महाराजा साहब से उम्र में बड़े थे, लेकिन दोनों के बीच गहरी दोस्ती थी। इस दोस्ती का एक और पहलू ये था कि दोनों के लिए सिनेमा हॉल में कुर्सियां हमेशा पास-पास ही लगाई जाती थीं। यह दोनों मित्र होली के दिन ही मिलते थे।