कांकेर/बस्तर मित्र
राजधानी में स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय द्वारा अपनी आनलाइन प्रदर्शनी श्रृंखला के 75वें सोपान के तहत संग्रहालय की जनजातीय मुक्ताकाश प्रदर्शनी से ‘‘मोगरा देव‘‘ एक जनजातीय देवता की जानकारी को इससे संबंधित विस्तृत जानकारी तथा छायाचित्रों एवं वीडियो समेत आनलाइन प्रस्तुत किया गया है।
मगरमच्छ जैसी लकड़ी की आकृति स्विस मानवविज्ञानी एबरहार्ड फिशर और हाकू शाह ने मोगरा देव का विस्तृत विवरण दिया है। उनके अनुसार लकड़ी के मगरमच्छ मुख्य रूप से गुजरात के सोनगढ़ और मांडवी इलाकों में पाए जाते थे। अधिकांश मगरमच्छ दुधमोंगरा ‘‘मांडवी तालुका‘‘ देवलीमाडी ‘‘सोंगध तालुका‘‘ और दूर देव मोगा ‘‘जगबारा तालुका‘‘ अभयारण्य में पाए गए थे। वे हमेशा खेतों के पास होते थे और कभी भी पहाड़ों पर चट्टानों पर नहीं पाये जाते थे। ये मगरमच्छ दो बुनियादी मौलिक रूपों में बनाए जाते हैं। एक सिर, एक शरीर और एक पूंछ वाला मगरमच्छ और एक ही शरीर पर विपरीत दिशाओं में दो सिर वाले जो आमतौर पर अलंकृत होते हैं। पूंछ वाले मगरमच्छ दुर्लभ हैं। वे मुख्य रूप से मांडवी क्षेत्र में पाए जाते हैं जहां उन्हें ज्यादातर चौधरी जनजाति द्वारा स्थापित किया गया है। जबकि दो सिर वाले मगरमच्छ मुख्य रूप से सोनगढ़ में पाए जाते हैं। जिसे गामित और वसावा जनजातियों द्वारा बनाया गया है।
मोगरा देव बनाने के लिए बहुत विस्तृत प्रक्रिया का पालन किया जाता है। सीधे लकड़ी के ब्लाक लेने के लिए जंगल में उचित चौड़ाई के सागौन के पेड़ का चयन किया जाता है। इसके बाद इसे गांव ले जाया जाता है। ये सभी अलंकरण ज्यादातर सजावटी हैं। जो रिक्त स्थानों को भरने के लिए हैं। उत्सव के अवसर पर मोगरा देव को समान रूप से लाल सिंदूर परत से ढंका जाता है तथा टेरकोटा की मूर्तियां अर्पित की जाती हैं। दर्शक ‘‘मोगरा देव‘‘ का अवलोकन मानव संग्रहालय के इंटरनेट मीडिया प्लेफार्म पर कर सकते हैं। डा. मिश्र ने बताया कि यह प्रस्तुति इस आनलाइन प्रदर्शनी श्रृंखला की अंतिम प्रस्तुति है। जल्द ही हम भारत की जैव-सांस्कृतिक विविधता को दर्शाने वाले अपने संग्रह पर आधारित नई प्रस्तुतियों के साथ फिर से आएंगे।