

मैं साल हूं। साल दर साल जंगलों में खड़ा बेमिसाल हूं। मैंने देखा है वक्त के साथ बहुत कुछ बदला। मैंने भी अपनी शाखाएं बदली, पत्ते बदले, लेकिन टिका एक ही जगह पर। तब तक जब तक कोई मुझे अपनी जरुरतों के मनमुताबिक ले नहीं गया। मैं साल हूं। लू के थपेड़ों को सह लेने की शक्ति भी है मुझमें और जड़ से लेकर आकाश की ओर निहारती पत्तों की शाखाओ में चींटियों से लेकर पंछियों तक का मुझ पर बसेरा है। मैं जहां भी हूं जैसा भी हूं...लिए हुए मुस्कान हूं। न जाने कितनी पिढ़ियां गुजर गई है। बहुत से लोग आये और चले गए। मैं जैसे उनके जीवन का हिस्सा बन गया। सबके काम आया। मैं किताब के पन्नों की तरह खुला हुआ था। जिन्होंने भी इन पन्नों को पढ़ा, वे मुझे समझते गए। मैं उनकी संस्कृति का भी हिस्सा बन गया। मुझे उन्होंने अपने सुख-दुख में शामिल कर रहन-सहन, तीज-त्यौहार से भी जोड़ दिया। मैं ही विकसित संस्कृति तो कहीं परम्परा की पहचान हूं। मैं विकास की गाथा में शामिल अनगिनत कहानियों की दास्तान और मिसाल हूं। मैं साल हूं, बेमिसाल हूं...