किसान आंदोलन के 9 माह: राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण करता किसान आंदोलन जनान्दोलन और गैर-संसदीय विपक्ष बनने की राह पर है। इसमें कोई शक नहीं है कि देश को कॉरपोरेट लूट के चारागाह में बदलने की साज़िश के ख़िलाफ़ किसान-आंदोलन आज़ादी की नई लड़ाई का केन्द्रक बनेगा।
राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के आंदोलन के 9 महीने हो गए। इस अवसर पर 26-27 अगस्त को सिंघु बॉर्डर पर किसान मोर्चा का पहला अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन चल रहा है, दिल्ली बॉर्डर पर जारी आंदोलन को देश के सारे किसानों की सामूहिक राष्ट्रीय आवाज और उनकी प्रतिनिधि संस्था बनाने तथा आंदोलन की भावी दिशा और रणनीति तय करने में यह सम्मेलन मील का पत्थर साबित होगा। संयुक्त किसान मोर्चा के बयान में कहा गया है, " इस ऐतिहासिक सम्मेलन में 22 राज्यों के 2500 से अधिक प्रतिनिधि भाग ले रहे हैं। इसमें 300 से अधिक किसान और खेत मजदूर संगठनों, 18 अखिल भारतीय ट्रेड यूनियनों, 9 महिला संगठनों और 17 छात्र और युवा संगठनों के प्रतिनिधि भाग ले रहे हैं। सम्मेलन का उद्घाटन किसान नेता राकेश टिकैत ने किया, जिन्होंने सभी प्रतिनिधियों का स्वागत किया और सभी मांगों को पूरा होने तक शांतिपूर्ण विरोध जारी रखने के किसानों के संकल्प की पुष्टि की। सम्मेलन के दूसरे सत्र में श्रमिकों पर थोपे गए 4 लेबर कोड रद्द करने एवम अन्य समस्याओं को लेकर देश के अनेक श्रमिक संगठनों के नेताओं ने सम्मेलन को संबोधित किया। "
दिल्ली बॉर्डर पर आंदोलन को भले 9 महीने हो रहे हैं, पर सच यह है कि अध्यादेश के माध्यम से 3 कृषि कानूनों के सामने आने के बाद अगस्त 2020 में ही पंजाब के अलग-अलग इलाकों में आंदोलन की अनुगूंज सुनाई पड़ने लगी थी। इसलिए, सही मायने में आंदोलन अब दूसरे वर्ष में प्रवेश कर रहा है। मोदी सरकार ने संवैधानिक प्रावधानों की खुलेआम धज्जियां उड़ाते हुए जब इन्हें कानून का रूप दिया था, तब इसके खिलाफ 25 सितंबर 2020 को किसानों ने पहले भारत बंद का आह्वान किया और उसके 2 महीने बाद 26 नवम्बर, 2020 को उन्होंने दिल्ली के लिए कूच किया। 8 दिसम्बर, 2020 को उन्होंने दूसरे भारत बंद का आह्वान किया। दरअसल, अपने पहले ही कार्यकाल में मोदी ने जब किसान-विरोधी भूमि अधिग्रहण कानून बनाने की कोशिश की, किसान तभी उनके इरादों को भाँप गए थे। कृषि व श्रम क्षेत्र में नव उदारवादी सुधारों को लागू करने की कॉरपोरेट की बहुप्रतीक्षित मांग को पूरा करने की दिशा में वह उनका पहला कदम था, जिसके लिए कॉरपोरेट घराने प्रबल समर्थन देकर उन्हें सत्ता में लाये थे। लेकिन किसानों की तीखी स्वतस्फूर्त प्रतिक्रिया से, जिसके साथ विपक्षी पार्टियाँ भी खड़ी हो गईं, सरकार डर गई और उसने तेजी से अपने पैर पीछे खींच लिए। उसके बाद मंदसौर गोलीकांड के विरुद्ध किसानों ने आवाज उठाई और स्वामीनाथन आयोग की संस्तुतियों को लागू करवाने तथा कर्ज़ मुक्ति के लिए राष्ट्रीय स्तर पर समन्वय बनाकर दिल्ली में पहल और हस्तक्षेप शुरू किया। बीच में CAA-NRC आदि के माध्यम से बदले एजेंडा, दिल्ली दंगों और कोविड की पहली लहर से पैदा हुए सहमे माहौल में मोदी जी को शायद लगा कि किसान इस समय प्रतिरोध में नहीं उतर पाएंगे और वे अपने कॉरपोरेट एजेंडा को लेकर फिर आनन-फानन में सामने आ गए और 3 कृषि कानूनों (तथा 4 लेबर कोड) को अकल्पनीय तेजी से उन्होंने क़ानूनी जामा पहना डाला।
महामारी के समय जब सब लोग किसी तरह अपनी प्राण-रक्षा में लगे थे, ठीक उस समय किसानों की मजबूरी का फायदा उठाकर क्रूरतापूर्वक चोरी-चुपके, धोखाधड़ी से कॉरपोरेट लुटेरों को कृषि क्षेत्र में घुसाने की मोदी की बदनीयत को किसानों ने अच्छी तरह पहचान लिया। इस पर उनका आक्रोश और तीखी प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी, अंततः अपना और अपनी भावी पीढ़ियों का अस्तित्व बचाने के लिए वे जान हथेली पर लेकर महामारी के बावजूद निकल पड़े और मोदी-शाह-खट्टर राज के हर दमन का मुकाबला करते न सिर्फ दिल्ली के दरवाजे पर पहुंच गए बल्कि मौसम, महामारी और मोदी की क्रूर सत्ता का मुकाबला करते 9 महीने से वहां टिके हुए हैं।
सरकार कृषि क्षेत्र में इन बदलावों के लिए इतनी उतावली और दृढ़प्रतिज्ञ थी कि संविधान की भावना और प्रावधानों का violation करने में भी नहीं हिचकी, उसकी तकनीकी व्याख्या वह जो भी करे, State List के विषय कृषि पर स्वयं कानून बना दिया, विवाद की स्थिति में कोर्ट जाने का संवैधानिक अधिकार छीन लिया और संसदीय नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए "ध्वनिमत" से बलात किसानों की जमीन और आजीविका पर हमला बोल दिया।
इन 9 महीनों में किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन को कुचल देने की हर सम्भव साजिश की गई। शुरू में वार्ता के कुछ दिखावे जरूर किये गए, पर सरकार कानूनों को वापस न लेने की जिद पर अड़ी रही। 22 जनवरी को आखिरी वार्ता टूटने के बाद 26 जनवरी का घटनाक्रम आंदोलन के लिए टर्निंग पॉइंट साबित हुआ, जब आंदोलन का पुनर्जन्म हुआ, उस दिन किसानों ने भाजपा के असली किसान विरोधी फासिस्ट रूप का दर्शन किया और देश ने किसानों के प्रचण्ड प्रत्याक्रमण की ताकत देखी। इसके बाद से आंदोलन लगातार भाजपा विरोधी दिशा अख्तियार करता गया और बंगाल चुनाव में किसान खुलकर भाजपा-हराओ अभियान में उतर पड़े।
पिछले 9 महीने में इस आंदोलन की अनेक उपलब्धियां हैं
सर्वोपरि, इस आंदोलन ने देश की जनता को बेहतरी और बदलाव की उम्मीद दी है, जो फासिस्ट हमलों के गुहान्धकार में कहीं गुम सी हो चली थी, इसने उन तमाम संवेदनशील नागरिकों को जो 7 साल से मनुष्यता-विरोधी दमघोंटू माहौल में जीने को अभिशप्त थे और नाउम्मीद हो चले थे, यह भरोसा दिया है कि इंसाफ, इंसानियत और जम्हूरियत के लिए जनता लड़ेगी और जीतेगी, कि जालिम फासीवादी ताकतें अपराजेय नहीं हैं, उन्हें पीछे धकेला जा सकता है। इस आंदोलन ने देश का एजेंडा बदल दिया, साम्प्रदयिक ध्रुवीकरण और अंधराष्ट्रवादी उन्माद के नैरेटिव को पीछे धकेलकर, आपसी भाईचारे पर आधारित सच्ची राष्ट्रीय एकता को बुलंद कर, सेकुलर डेमोक्रेटिक एजेंडा का वर्चस्व स्थापित कर, हमारे लोकतंत्र को बचा लिया है और भारत को फासिस्ट हिन्दू राष्ट्र बनाने के कुचक्र को ध्वस्त कर दिया है। यह अनायास नहीं है कि इसी दौर में महज एक साल में मोदी की लोकप्रियता 66% से 24% और योगी की approval rating 49% से गिरकर 29% हो चुकी है। किसान आंदोलन ने मोदी को अडानी-अम्बानी का आदमी साबित कर जनता के बीच उनकी मसीहा की गढ़ी गयी (manufactured ) छवि को ध्वस्त कर दिया है और बहुप्रचारित मोदी लहर का हमेशा के लिए अंत कर दिया है, जिसे बंगाल चुनाव ने बखूबी दिखा दिया।
इसने demoralised, भयभीत विपक्षी दलों को लड़ने का हौसला दिया है, धीरे धीरे बड़ी विपक्षी एकता आकार ले रही है जो अंततः 2024 में मोदी एंड कम्पनी को बोरिया-बिस्तर समेटने पर मजबूर करने की ओर बढ़ रही है। 19 विपक्षी दलों ने कॄषि कानूनों को रद्द करने की किसानों की मांग को अपने 10 सूत्रीय एजेंडा में शामिल किया है, जो भविष्य में उनके संयुक्त घोषणापत्र का आधार बनेगा। आज यह आंदोलन बड़ी सम्भावनाओं के द्वार पर खड़ा है और उसी अनुपात में इसके सामने चुनौतियां खड़ी हैं। वैसे तो व्यवहारतः कृषि कानून मृत हो चुके हैं और भविष्य की कोई सरकार शायद ही इन्हें लागू करने की जुर्रत करे, पर क्या आंदोलन मोदी सरकार को इन कानूनों को औपचारिक रूप से वापस लेने और MSP की कानूनी गारण्टी के लिए बाध्य कर पायेगा, क्या यह विपक्ष की पार्टियों को इसके लिए कायल कर पायेगा और भविष्य में यदि उनकी सरकार बनती है तो इसे लागू करवा पायेगा? क्या यह आंदोलन कृषि के क्षेत्र में नवउदारवादी सुधार की प्रक्रिया और बड़ी पूँजी के प्रवेश को रोक सकता है? क्या यह जनांदोलनों के ऐसे chain reaction को trigger कर सकता है जिससे अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में neo-liberal reforms को रोल बैक करना पड़े और एक जन-केन्द्रित अर्थव्यवस्था का ऐसा मॉडल सामने आए जिसमें कृषि व कृषि-आधारित उद्यमों की आधारभूत भूमिका हो, तथा राज्य की भूमिका प्रमुख हो? सर्वोपरि, हमारी राजनीति और समाज ने जो एक majoritarian turn ले लिया है, खतरनाक बहुसंख्यकवादी सोच और व्यवहार राजनीतिक दलों से लेकर आम समाज तक में वैधता हासिल करता जा रहा है, क्या किसान आंदोलन उसे बदल पायेगा और इससे अलग हटने के लिए विपक्ष पर दबाव बना पायेगा? आज यह निर्विवाद रूप से दुनिया का सबसे बड़ा प्रोटेस्ट मूवमेंट है, जिसकी दिशा कॉरपोरेट-विरोधी है, जाहिर है पूरी दुनिया की निगाह इसकी ओर लगी हुई है और इससे अपेक्षाएं भी बड़ी हैं।